मंगलवार, 25 मई 2010

ये शराब है शराब, यारों बड़ी खराब है ये

कोई गम भूलाने के लिए पिए
कोई गम में डूब जाने के लिए पिए
पीने वाला कहता इसको, जाम है ये
ना पीने वाला कहता बदनाम है ये

ये शराब है शराब, यारों बड़ी खराब है ये
ये खराब है खराब, यारों बड़ी खराब है ये
सच-सच बता दे कोई ज़माने को
ज़िन्दगी के किस सवाल का जवाब है ये
ये शराब है शराब, यारों बड़ी खराब है ये
ये खराब है खराब, यारों बड़ी खराब है ये

दिन गुज़र जाता है इसके बिना
शाम होते ही शराब याद आती है
इंसान तो कुछ वक़्त ही पीता है इसको
पर ये इंसान को पल-पल पी जाती है
ज़िन्दगी मिटा दे, मीठे ज़हर का सैलाब है ये
ये शराब है शराब, यारों बड़ी खराब है ये
ये खराब है खराब, यारों बड़ी खराब है ये

शराबी इसको पीकर दुनियां अपनी आबाद करते हैं
क्यों नही समझते की वो अपना ही घर बर्बाद करते है
जब ये शरीर में जाकर मिल जाती है
इज्जत चंद लम्हों में मिट्टी में मिल जाती है
ज़माने के रोज़ ताने सुने
देखो, पीने वाला खुद को समझता नवाब है ये
ये शराब है शराब, यारों बड़ी खराब है ये
ये खराब है खराब, यारों बड़ी खराब है ये

चलों हम सब मिलकर ये कसम उठाएंगे
इस मीठे ज़हर को कभी ना हाथ लगायेंगे
लोगों के दिलों में हम भी जगह बनायेंगे
आने वाले कल में अपनी अलग ही पहचान हो
हर दिल में हो खुंशी, हर लब पर मुस्कान हो
सब मिलकर इसको पूरा करेगें"राज" का ख्वाब है ये
ये शराब है शराब, यारों बड़ी खराब है ये
ये खराब है खराब, यारों बड़ी खराब है ये !!

सोमवार, 17 मई 2010

"एक सोच"

एक सोच जो दिल से बाहर आना चाहती है
दिल से दूर होके भी दिल के करीब रहना चाहती है
एक सोच......................

कैसें संभालें कोई अपने दिल को
जब शबनम आग लगा दे महफ़िल को
कभी दुनियां की भीड़ से मिलकर
कभी तन्हाई में खोना चाहती है
एक सोच......................

कभी-कभी होता है अपनों से भी दूर चले जाएं
आँखों में बहे आंसू, करके उन्हें इतना मजबूर चले जाएं
कभी खुद ही हंसा कर दूसरों को
कभी खुद ही रोना चाहती है
एक सोच......................

इन हवाओं के झोंकों की तरह सिमट जाऊं
बरस कर बादलों की तरह मिट जाऊं
कभी सागरों की गहराई में जाकर
कभी नीले आसमां में उड़ना चाहती है
एक सोच......................

कभी न ख़त्म होने वाली राहों में
हज़ारों सपने लेकर निगाहों में
कभी वो बसकर सीने के अन्दर
कभी वो "राज" से ही जुदा होना चाहती है
एक सोच......................

हमें ज़िन्दगी की चाहत ओर नही है अभी....

हमनें की वफ़ा थी, पर वो बेवफा थी
शुरू हुआ ग़मों का सिलसिला, खुंशियाँ खफा थी !!


जो गुजरी है अब तक, बड़ी मुश्किल से गुज़री है
हमें ज़िन्दगी की चाहत ओर नही है अभी
सारी कसमें भी तोड़ी, प्यार वाली नज़रें भी मोडी
पत्थर दिल बनकर ऐसे जा रहे है जैसे हैं कोई अजनबी
हमें ज़िन्दगी की चाहत ओर नही है अभी
मैं अक्सर तन्हाइयों मे अकेले ही रोते रहता हूँ
नफरत हो गयी है खुद से मुझको
क्यों अब इस ज़िन्दगी का बोझ थोते रहता हूँ
कोई आके बता दे, इस दिल को समझा दे
सारे अरमां बुझ गए हैं
कैसे होंगी पूरी, जो दिल में , अधूरी ख्वाहिशें है दबी
हमें ज़िन्दगी की चाहत ओर नही है अभी
वो हमें छोड़कर चले गए, ऐसे
एक रात के मुसाफिर हो कोई, जैसे
उनको भी याद आएँगे, मेरे साथ गुज़ारे वो लम्हें
नगें पैरों से वो तपती धुप में छत पे आना
चांदनी रातों में बाहों को फैलाकर पास बुलाना
दिल की दिवारों पे मोजूद है अब तक
तेरी मोहब्बत के निशां वो सभी
हमें ज़िन्दगी की चाहत ओर नही है अभी
साथ मेरे तुने वो किया जिसकी मुझे ना आस थी
उस मोड़ पर मेरा हाथ छोड़ा
जब ना किनारा, ना मांझी, ना किश्ती पास थी
तेरा हर सितम गले से लगाया
जो भी सितम बेवफा तुने है ढाया
मेरी जां ये तेरी मेहरबानी है
क्यों रो रही है आँखे, क्यों इनमे पानी है
जिसपे है बीती ये उस "राज" की कहानी है
हो सकें तो करना माफ़ हमकों
तेरी बेवफा दुनियां में लोटकर हम ना आएँगे कभी
हमें ज़िन्दगी की चाहत ओर नही है अभी
हमें ज़िन्दगी की चाहत ओर नही है अभी

शनिवार, 15 मई 2010

ख्वाब

निगाहों को निगाहों से मिला तो सही
हमें भी इस दिल में कभी बसा तो सही

कर देगें आपके हर ख्वाब को हम पूरा
कभी अपने ख्वाबों में हमें बुला तो सही

तेरे आगोश में आकर दिल को सुकून सा मिलता है
अपने हाथों से मेरे ज़ख्मों पर मरहम लगा तो सही

मोहब्बत कितनी है इस दिल में तेरे लिए
मेरी मोहब्बत को कभी आजमा तो सही

अपने प्यार की हवाओं को आने दे मुझ तक
अपनी चाहतों के बादल कभी बरसा तो सही

मेरी जान बनकर होंटों की मुस्कान बनकर
अपनी महकती खुशबूं से "राज" का जीवन महका तो सही !!

शुक्रवार, 14 मई 2010

ज़िन्दगी के किस-किस सवालात से लडूँ

ज़िन्दगी के किस-किस सवालात से लडूँ
खुद से लडूँ या हालात से लडूँ ....

दिन के उजाले से ही डर लगता है मुझे
कैसें इस तन्हाई भरी रात से लडूँ ....

चंद सिक्कों की खन-खन का दामन थाम लिया है तुने
कब तक तेरे इस बदले हुए ख्यालात से लडूँ ....

दे कोई ऐसी दुआ की "राज" की ज़िन्दगी की शाम हो जाये
आखिर कब तलक मैं इस ज़िन्दगी की हवालात से लडूँ ....

सच का सामना करने से कतरा रहें हैं लोग,

क्यों खुद से इस कदर घबरा रहें हैं लोग
सच का सामना करने से कतरा रहें हैं लोग,

कोई चीख- पुकार सुनाई नहीं देती इनको
ज़िन्दगी में ऐसे भागे जा रहें हैं लोग,

सरेआम आबरू लूट जाती है यहाँ एक औरत की
दूसरों के आंसुओं पर खुंशियाँ मना रहें हैं लोग,

आशिकों को चढ़ा देते है सूली पर
और गीत प्रेम का गा रहें हैं लोग,

सदियों से लगा रखा है पहरा प्यार पर
लेकर सहारा झूठ का, सच को मिटा रहें हैं लोग,

"राज" सच है ये, ये दुनियाँ सचमुच पत्थर दिल है
चंद पल की खुंशी के लिए,अपनों का खून बहा रहें हैं लोग !!

" मैं और मेरी चाहत "

दिल मे उठे कुछ सवालों के जवाब चाहता हूँ मैं
बेगानों से क्या, अपनों ,से कुछ जवाब चाहता हूँ मैं,
आने से पहले ही ना जाने कितनी ज़िन्दगी खत्म कर दी हमनें
और कितनी ज़िन्दगी तबाह करनी है उनका हिसाब चाहता हूँ मैं,
दिल मे उठे कुछ सवालों के जवाब चाहता हूँ मैं.......

कुछ कमर तोड़ दी मंहगाई ने, कुछ आपसी लड़ाई ने
दर-दर कि ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया ,
इज्जत कि दो रोटी कि भरपाई ने
गरीबों में अपनी खुशबूं फैलाए, ऐसा गुलाब चाहता हूँ मैं,
दिल मे उठे कुछ सवालों के जवाब चाहता हूँ मैं......

डरी-डरी, सहमी- सहमी सी है कुछ निगाहें
आजाद होकर भी गुलाम है उनकी राहें,
निडर, बैखोफ होकर जिए, भारत कि हर नारी
अधूरा है, पूरा हो जाये, ये ख्वाब चाहता हूँ मैं,
दिल मे उठे कुछ सवालों के जवाब चाहता हूँ मैं......

चंद सिक्कों के लिए अपनी इज्जत का सोदा कर रहे है
अपने घरों मे दोस्तों के भेष मे दुश्मन भर रहे है,
"राज" को अपनी धरती फिर से गुलाम होती नज़र आ रही है
मिटा दे जो दुश्मनों को, फिर कोई आजाद जैसा नवाब चाहता हूँ मैं,
दिल मे उठे कुछ सवालों के जवाब चाहता हूँ मैं......

गुरुवार, 13 मई 2010



 आओं पेड़ लगाएं 


पेड़ों के दर्द को क्यों नही समझते हम
पेड़ों के दर्द को कम क्यों नही करते हम
एक पेड़ तुम भी लगाओ
एक पेड़ हम भी लगाएं
जिस बंजर भूमि पर है मायूसी
हर उस कोने में हरियाली लाएं
कस्में तो खा लेते है हम सब
पर उन कस्मों पर क्यों नही चलते हम
पेड़ों के दर्द को क्यों नही समझते हम...............
पेड़ लगाएंगे तो फल भी खाएंगे
लकड़ियाँ तो मिलेंगी ही, छाया भी पाएंगे
जब-जब ये बारिश आएगी
पेड़ों के गीत सुनाएगी
पेड़ों में भी तो जीवन है
फिर पेड़ काटते वक़्त क्यों नही डरते हम
पेड़ों के दर्द को क्यों नही समझते हम...............
हरा-भरा रहेगा आँगन अपना
पेड़ों संग ही जुड़ा है जीवन अपना
पेड़ों को काटने वालो कुछ तो शर्म करो
अपने पत्थर दिल को थोडा सा नर्म करो
सब को पता है पेड़ ही तो जीवन है
फिर मोम की तरह क्यों नही पिघलते हम
पेड़ों के दर्द को क्यों नही समझते हम...............
पेड़ों के दर्द को कम क्यों नही करते हम !!