ये ज़िन्दगी मेरे मन के मुताबिक़ क्यों नही चलती ?
ये शाम थोड़ा और रूक कर क्यों नही ढलती ?
ये शाम थोड़ा और रूक कर क्यों नही ढलती ?
ऐ चाँद तू मेरे आँगन में क्यों नही खेलता है ?
एक दिन सुबह भी मेरे संग क्यों नही चलती ?
एक दिन सुबह भी मेरे संग क्यों नही चलती ?
ये कैसा गम हैं कि मेरा पीछा छोड़ता ही नही हैं ?
आखिर खुशियाँ मेरी झोली में क्यों नही पलती ?
आखिर खुशियाँ मेरी झोली में क्यों नही पलती ?
दूर कहीं जाकर बसेरा बना लूँ उसकी निगाहों में मैं
ठोकरें खा -खाकर भी दुनियां क्यों नही संभलती ?
ठोकरें खा -खाकर भी दुनियां क्यों नही संभलती ?
वो मेरी आँखों से दूर हो जाए तो बैचैनी हो जाती है
एक वो है उसको "राज" की कमी क्यों नही खलती ?
एक वो है उसको "राज" की कमी क्यों नही खलती ?