सोमवार, 17 मई 2010

"एक सोच"

एक सोच जो दिल से बाहर आना चाहती है
दिल से दूर होके भी दिल के करीब रहना चाहती है
एक सोच......................

कैसें संभालें कोई अपने दिल को
जब शबनम आग लगा दे महफ़िल को
कभी दुनियां की भीड़ से मिलकर
कभी तन्हाई में खोना चाहती है
एक सोच......................

कभी-कभी होता है अपनों से भी दूर चले जाएं
आँखों में बहे आंसू, करके उन्हें इतना मजबूर चले जाएं
कभी खुद ही हंसा कर दूसरों को
कभी खुद ही रोना चाहती है
एक सोच......................

इन हवाओं के झोंकों की तरह सिमट जाऊं
बरस कर बादलों की तरह मिट जाऊं
कभी सागरों की गहराई में जाकर
कभी नीले आसमां में उड़ना चाहती है
एक सोच......................

कभी न ख़त्म होने वाली राहों में
हज़ारों सपने लेकर निगाहों में
कभी वो बसकर सीने के अन्दर
कभी वो "राज" से ही जुदा होना चाहती है
एक सोच......................

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